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जगत गुरु मान भारत / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
जगत गुरु मान भारत का, नहीं उसको घटाना है।
पुनीता यह धरा अपनी, हमें मिलकर सजाना है।
सदा से चाँदनी रातें, मिलन के गीत गाती जो,
बढ़ाकर प्रीति की नौका, चलो गाते तराना है।
बढ़े झंझा झकोरे तो, फँसी मँझधार में नौका
लिया पतवार हाथों में, हमें आगे बढ़ाना है।
तुम्हीं माँझी किनारा तुम, तुम्हीं धारा सहारे हो,
भँवर में डगमगाये तो, इसे तुमको बचाना है।
विधाता गा रहे हम सब, बढ़ी है छंद की गरिमा,
विधा भावों सुछंदों का, हृदय होता खजाना है।
जगा अंतस सुतंत्रों को सजायें ताल में सुर को,
बिना लय के नहीं भाये, इसे सुर से सजाना है।
दिवा देती उजाला तो, शिखा का मान भी रखना,
घिरा तम में सुपथ देखें, सदा दीपक जलाना है।