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जगत छलना की उन्हें न चाह / सुमित्रानंदन पंत

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जगत छलना की उन्हें न चाह,
धीर जो नर, धीमान्!
सुरा का बहता रहे प्रवाह,
डूब जाएँ तन प्राण!
सुराही से हो सुरा प्रपात,
दर्द से दिल बेताब!
मूर्ख वे, खाते ग़म दिन रात,
उमर पीते न शराब!