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जगते तारे / महेन्द्र भटनागर

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अर्ध्द निशा में जगते तारे !

जब सो जाते दुनिया वासी; जन-जन, तरु, पशु, पंछी

सारे !


ये प्रहरी बन जगते रहते,

आपस में मौन कथा कहते,

ना पल भर भी अलसाए रे, चमके बनकर तीव्र सितारे !


झींगुर के झन-झन के स्वर भी,

दुखिया के क्रन्दन के स्वर भी,

लय हो जाते मुक्त-पवन में चंचल तारों के आ द्वारे !


निद्रा लेकर अपनी सेना,

कहती, 'प्रियवर झपकी लेना'

हर लूँ फिर मैं वैभव, पर, ये कब शब्द-प्रलोभन से हारे !


जलते निशि भर बिन मंद हुए,

कब नेत्र-पटल भी बंद हुए,

जीवन के सपनों से वंचित ये सुख-दुख से पृथक बिचारे !