जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया / शाद आरफ़ी
जज़्बा-ए-मोहब्बत को तीर-ए-बे-ख़ता पाया
मैं ने जब उसे देखा देखता हुआ पाया
जानते हो क्या पाया पूछते हो क्या पाया
सुब्ह-दम दरीचे में एक ख़त पड़ा पाया
देर में पहुँचने पर बहस तो हुई लेकिन
उस की बे-क़रारी को हस्ब-ए-मुद्दआ पाया
सुब्ह तक मिरे हम-राम आँख भी न झपकाई
मैं ने हर सितारे को दर्द आश्ना पाया
गिर्या-ए-जुदाई को सहल जानने वालो
दिल से आँख की जानिब ख़ून दौड़ता पाया
एहतिमाम-ए-पर्दा ने खोल दीं नई राहें
वो जहाँ छुपा जा कर मेरा सामना पाया
दिल को मोह लेती है दिल-कशी-ए-नज़्जारा
आँख की ख़ताओ में दिल को मुब्तला पाया
रंग लाई ना आख़िर तर्क-ए-नाज़-बरदारी
हाथ जोड़ कर उस को महव-ए-इल्तिजा पाया
‘शाद’ गैर-मुमकिन है शिकवा-ए-बुताँ मुझ से
मैं ने जिस से उल्फ़त की उस को बा-वफ़ा पाया