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जड़ें / भास्कर चौधुरी

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सोचता हूँ
कहाँ होती है
उनकी जड़ें
जो गाँव छोड़
दिल्ली चले जाते है
जिनके पीछे
रह जाते हैं
माँ बाबूजी दद्दा दादी या परदादी
या इनमें से कोई एक या दो
खपरैल की छत बदले जाने के इंतज़ार में मकान
एक बदहाल खेत
पानी को तरसता कुँआ
चंद पेड़ बबूल और इमली के
रिश्तों को निबाहते बर्तन, खाट और
धूल अटीं कक्षा ग्यारवीं या बारह्वीं की किताबें...
सोचता हूँ
कहाँ होती हैं उनकी जड़ें
जिनकी जड़ें जमी ही नहीं होती हैं कहीं
जो घूमते रहते हैं गाँव से कस्बा कोई
या कस्बे से शहर
सिमटता परिवार लेकर
जिसमें सदस्य केवल तीन या चार ही होते हैं
जो विवश होते हैं फोन पर किसी मित्र को झूट बोलने को
कि वे घर पर होते हुए भी नहीं होते हैं घर पर
जो कभी किसी गाँव कस्बे या शहर को
अपना नहीं कह सके
कहाँ होती हैं उनकी जड़ें...
कहाँ होती हैं उनकी जड़ें
जो जड़ों से उखाड़ दिये गये हैं
सोचता हूँ...