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जड़ें / शिरोमणि महतो
Kavita Kosh से
जितनी मज़बूती से जड़ें
ज़मीन को जकड़ी होती हैं
पेड़ उतना ही झंझावातों से
टकराने का हौसला रखता है
जड़ें ज़मीन में जितने
गहरे धँसी होती हैँ
उतना ही सीना तानकर
भुजाओं को उठाकर
पेड़ चुनौती देता है —
आकाश को !
जड़ों से उखड़े पेड़
तिनकों के सामान
नदी के बहाव संग बहते
इस छोर से उस छोर
साँझ ढलते ही पक्षियों का जोड़ा
खदान में खटने गए मज़दूरों का रैला
रोज़ भोर होते ही पश्चिम में डूबा सूरज
शायद इसीलिए लौट आता है —
सब कुछ झाड़ - पोंछकर
अपनी जड़ों की ओर !