जतन लाख / पीयूष दईया
अलोप।
चदरिया के बारे में मादरजात को पता नहीं चल पाता। लाख जतन कर लेता पर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता। मैली या साफ़ कैसे करता जबकि वह उसकी पहुंच से परे बनी रहती। वह थी भी या नहीं यह तक उंगली रखना कठिन होता सो वह माफ़ी मांगता रहता।
कोरा ही रहा ऐसा धोखा होता।
पुरख़ुलूस।
जतन लाख कर लेता पर शब्द की कोशिकाएं मर चुकी होती। उन्हें फिर से चलता फिरता नहीं कर पाता। संबंधों से अभावग्रस्त। किन्हीं टूटे हुए परों को भले चिपका लेता पर पक्षी उड़ नहीं पाता। अपने को बरजता रहता। बदलने से या फिर से वही सब पाने को जो उसने खो दिया होता। सकल जड़ों संग। जीने का मर्मफला सारांश। दस्तेग़ैब का अजाना।
गोशे गोशे में पिघलता। अभेद्य बना रहता।
लौटता एकर्षि।
उसी मार्ग से फिर। जैसे गया था वैसे। छूंछा छूंछा मुमुक्षु। माध्यम को फाड़ने का यत्न करते। अपने मजमून निःसहाय एकाकी लगने लगते। सांकल बंधे। सयानों से सुने स्वर चीकटजमे। आत्मार्थ। विदूषक की भूमिका में आ जाते। सूत्रधार। उसकी गहराइयों में उन चट्टानों की तरह लुढ़कते जिन्हें वह कभी ठोकर देना चाहता या कठोर जबान की बैठक बना लेता या खड़खड़ाते सूखे पत्ते जो पकने से पहले डाल छोड़ देते पर कभी बैसाखी में नहीं बदल पाते। गर्द-आलुदा पन्नों-से। हर रंग में शर्मसार।
बढ़त लेते।
विज्ञप्त होता। मादरजात। जांघजल तक। बनत बांधता। कहीं खाली जगह से।
असलियत का भेदिया। चला जाता। एकदम। कंधे उचकाए।
अशरीरी राहगीर।
अपना चूल्हा ठण्ड़ा कर देता।