भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जद खिलै अर खुलै कविता / वासु आचार्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तू जद जद भी
खिलखिला‘र
खुलै अर खिलै
म्हारै हियै जियै
उडण लागै
किलकारी मारता
पंख पंखेरू

चमकण लागै
दूज रो चन्द्रमा
पूनम रै चांद री
छटा बिखेरतो
म्हारै मन आंगण

बैवण लागै
मधरी बयार
चैत रै नीमड़ा री
बिखैरती मैहक
भरती म्हारै रोम रोम
कदै पूरी नीं हुवै
चमचमावते
चमकतै दमकतै तारां री
आ इमरत बरसांवती रात
कदै पुरो नीं हुवै
म्हामें थारो रचाव

खिलती अर खुलती रै
रोज म्हारी कविता
ऊगतै सूरज रै सागै
जको कदै‘ई
नी बिसांईजै