भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जनि गोहराव आधी-आधी रतिया / मदन मोहन 'मनुज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जनि गोहराव आधी-आधी रतिया, जनि मन पारऽ बीतल बात।
देहिया के दियरा में मनवा के बतिया, नेहिया से भरत हियाव।
सुधिया के जोति जरेले भरि रतिया, उजियारी जिनगी के रात।।
कइसे ना गोहराईं आधी-आधी रतिया, कइसे ना मन पारीं बात।
ढहि-ढमिलाइ गइले सँचलि महलिया, अन्हियारी जिनिगी के रात।।

मनवा तलइया में नेह देइ पॅवड़लीं, लाज मोह बाड़े रखवार।
चारु ओरि भॅवरिनि के पहरा बन्हाइल बा, लजवा के आर-न-पार।।
अचके में डूबे लगलीं धाव-धाव लोगिनी, जिनिगी पड़ल मझधार।
नाचे लागल असगुन के बड़की बिटिउआ, हाथवा से छुटल पतवार।।
हे मन ! भगजोगिनि कि दियरा बरत बाड़े, दहि लाग ओहि रे किनारा।।