भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब तक / कुमार वीरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह जानती थी

कहीं ठहरता
नहीं, इसलिए कितनी भी रात
हो जाए, जब तक नहीं लौटता, दुआर पर जलती रहती ढिबरी
जिस रात नहीं जलती, समझ जाता, कोटे से मिलनेवाला तीन
लीटर किरासन तेल ख़त्म हो चुका है, बनिया
यहाँ ब्लैक में भी, नहीं
मिला होगा

पर आजी अपनी माटी की

कितना भी समझाओ
कहाँ समझनेवाली, ढिबरी जले न जले, जब तक
नहीं लौटता, बैठी रहती, और सिर्फ़ बैठी ही नहीं रहती, अपने आपसे जाने क्या-क्या तो
बतियाती, एक दिन कहा, 'बउराहिन हो का, एक तो बैठी रहती हो, ऊपर से ई बतियाती
का रहती हो ?', तब पता नहीं, उसके चेहरे पर कौन सा रँग था, जो
तनिक ठहर के कहा, 'का करूँ, बेटा, बतियाती
रहती हूँ कि जब तक तू न लौटे
दुआर पर अँजोर
ना सही

अन्हार तो अन्हार ना लगे !'