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जब तुम कहती हो- हे छलिया / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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जब तुम कहती हो-‘हे छलिया, जादूगर, निष्ठुर, शठराज’!
कहती-‘हृदय छीनकर अब यों नहीं रुलाते आती लाज॥
समझ न सकी तुम्हें मैं, भूली देख मधुरतम मोहन वेश।
वज्र-कठोर हृदय है, जिसमें नहीं तनिक करुणा का लेश॥
व्याकुल-विह्वल होती मैं अति, पाती नहीं पलकभर चैन।
नित रहते सावन-भादों-से सतत बरसते दुखिया नैन॥
भूले, नहीं बुलाते मुझको, आने की न चलाते बात।
जलती रहूँ विरह-ज्वालामें मैं चाहे अविरत दिन-रात॥
होने लगी तुम्हें क्यों मेरी कितव! तनिक-सी भी अब चाह।
डूबे रहते सुख-सागरमें, क्यों मेरी करते परवाह॥
करना था यदि यही तुम्हें, तो क्यों मुझसे जोड़ा था नेह।
मन में आता, कर दूँ तुमसे त्यक्त भस्म यह पापी देह’॥
सबोधन अति लगते मीठे, सुनता रहूँ चाहता मन।
पर जब उनके साथ देखता मलिन-विषण्ण सुधांशु-वदन॥
यद्यपि करता सदा तुम्हारे ही पावन तन-मनमें वास।
छोड़ नहीं जा सकता पलभर अन्य किसीके भी मैं पास॥
पर जब हृदय-सुधोदधि में भडक़ा तव विरहज बड़वानल।
मेरे जुड़े हृदयमें भी जल उठी तुरत विरहाग्रि प्रबल॥
सुनकर दुःखभरे फिर भीषण प्रिये! तुम्हारे ये उद्गार।
मर्म-वेदना बढ़ी भयानक, उमड़ा दुःखका पारावार॥
दीर्घ कालसे सहन कर रहा मानो मैं वियोग-संताप।
मानो लगा मुझे है को‌ई दारुण अति विछोह-‌अभिशाप॥
कितनी पीड़ा है अन्तरमें कितना है भीषण उर-दाह।
नहीं बता सकता कैसे भी, करनेपर भी शत-शत चाह॥
अब तो तुम्हीं मिटा‌ओ, प्यारी! दे दर्शन, मधु आलिङ्गन।
बिना तुम्हारे अब तो सभव नहीं पलकभर यह जीवन॥
प्यारी! किंतु तुम्हारा-मेरा सभव नहीं कदापि वियोग।
मैं तुम, तुम मैं, कभी न न्यारे-नित्य ऐक्य संतत संयोग॥