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जब तुम चली जा रही थीं / अज्ञेय

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 जब तुम चली जा रही थीं, तब मैं तुम्हारे पथ की एक ओर खड़ा था।
तुम से बात करने का साहस मुझ में नष्ट हो चुका था। मैं ने डरते-डरते तुम्हारे अंचल का छोर पकड़ लिया।
(न जाने मैं ने ऐसा क्यों किया? मुझे तुम से कुछ पाने की इच्छा नहीं थी।)
तुम रुक गयीं, किन्तु कुछ बोलीं नहीं, न तुमने मेरी ओर देखा ही। मैं बार-बार तुम्हारे मुख को अपनी ओर फिराता, किन्तु तुम फिर घूम जातीं। अन्त में मैं ने डरते-डरते अपना मस्तक तुम्हारे अधरों पर रख दिया।
(न जाने मैं ने ऐसा क्यों किया? मुझे तुम से कुछ पाने की इच्छा नहीं थी।)
किन्तु जब तुम इसी प्रकार निश्चल खड़ी रहीं, तुम्हारे अधर हिले भी नहीं, न तुमने मुख ही फेरा, तब मुझे व्यथा और क्षोभ हुआ, और मैं तुम्हें वहीं छोड़ कर चला आया।

दिल्ली जेल, 13 नवम्बर, 1932