जब पत्ते झर रहे होते हैं / सविता सिंह
लगातार जब पत्ते झर रहे होते हैं।
बेआवाज़ एक चुप में
जब वीतराग-सा पुराना पेड़
पुराने क़िले की तरफ़ देखता है एकटक
बुढ़ाते वक़्त को बूढ़े पत्थरों में
चले जाते हैं एक-एक कर ढेर सारे शब्द
जो मेरे थे क्षण भर पहले
मुझसे निकलकर
ऐसे में क्या करती हो तुम
जब यह समझ चुकी हो
बहुत दूर तक सिर्फ़ अपनी आत्मा साथ रहती है
या अपने दुख
जब पत्ते झर रहे होते हैं एक कठोर निरंतरता में
जब प्रकृति उदास मुख लिये हवा-सी
बहती रहती है तुमसे लगकर
यों ही रखती अपना सिर तुम्हारे वक्ष पर
बटोरती तुम्हारे शब्द जो झर रहे थे तुमसे
बनाती उससे अपना संगीत
जब सब कुछ तुम्हार तुमसे निकल चुका हो
तुम्हारे रुदन के प्रकंपित एकांत में उतरने
कौन आता है उसे भरने
लीपने किसी नये क्षोभ से
जब पत्ते झर रहे होते हैं।
क्या कुछ झर रहा होता है तुम्हारा