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जब भी कलम हाथ से छोड़ी/ गुलाब खंडेलवाल

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जब भी कलम हाथ से छोड़ी
तुरत खिलखिलाकर पहले-सी तुमने ग्रीवा मोड़ी

दूर हुए भी जग के लेखे
सम्मुख सदा नयन वे देखे
ओ मेरे साथी सपने के!
मैंने तो अपने अंतर की गाँठ तुम्हीं से जोड़ी
 
माना, अब घट रीत रहा है
क्षण-क्षण जीवन बीत रहा है
किन्तु प्रेम तो जीत रहा है
यह प्राणों की डोर काल से भी न जायगी तोड़ी
 
फिर से नव गृह में नव वय में
मिलते ही पहले परिचय में
जाग उठेगी प्रीति हृदय में
लिए किशोर-चपलताओं में लज्जा थोड़ी-थोड़ी

जब भी कलम हाथ से छोड़ी
तुरत खिलखिलाकर पहले-सी तुमने ग्रीवा मोड़ी