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जब भी कोई ग़ज़ल कहने को हुआ मैं / कमलकांत सक्सेना

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जब भी कोई ग़ज़ल कहने को हुआ मैं।
तन्हाइयों के पल सहने को हुआ मैं।

दर्पण के दर्द को दुलरा दिया किसने
देखकर रूप सजल छलने को हुआ मैं।

हलचल ये कैसी हुई आपसे मिलकर
रोम रोम आजकल जलने को हुआ मैं।

जिनसे होकर आप यों ही कभी गुजरे
उन राहों का गरल पीने को हुआ मैं।

प्यार करने वाले क्या-क्या नहीं सहते
बनाके ताजमहल मिटने को हुआ मैं।

यों न जी पाएँगे मन का जीवन 'कमल'
हो जाओ तुम तरल, गलने को हुआ मैं।