जब मैं लौटूंगा / विशाल
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माँ ! जब मैं लौटूंगा
उतना नहीं होऊंगा
जितना तूने भेजा होगा
कहीं से थोड़ा...कहीं से ज़्यादा
उम्र जितनी थकावट
युगों–युगों की उदासी
आदमी को ख़त्म कर देने वाली राहों की धूल
बालों में आई सफ़ेदी
और क्या वापस लेकर आऊंगा...
क्या मैं तुझे बता सकूंगा
कि रोज़ मेरे अंदर
एक कब्र साँस लेती थी
कि कैसे अपने-आप को
जिंदा भ्रम में रखने के लिए
अपने ही कमरे में
प्रवेश करते समय दरवाज़ा थपथपाता था
यह जानते हुए भी कि
कोई दरवाज़ा नहीं खोलेगा
और न ही कोई आलिंगन में लेगा
न ही कोई देखेगा घूर कर
न ही कोई नाराज होगा
और न ही कोई करेगा माफ़
बस, एक ऎसा आलम पैदा होगाr>
जहाँ आदमी अपने आप को टोह कर देखता है।
माँ ! ज़्यादा से ज़्यादा क्या ले आऊंगा
पिता के लिए गले में लटकाने वाली घड़ी
या मेज पर रखने वाला टाइमपीस
कि बहुत तड़के अलार्म के साथ
वे दो वक़्त की रोटी के लिए
अपनी आँखों पर चढ़ा कर चश्मा
घर का चक्कर लगाते रहें
या फिर तेरी वास्तव में ही
ख़त्म होती जा रही नज़र के लिए
कोई रांगला सा फ्रेम
ताकि तेरे जे़हन में से
कहीं बेटे का फ्रेम टूट न जाए।
तुझे कैसे बताऊँ, ए माँ !
तेरे इस भागे हुए पुत्र को
कहीं भी टिकाव नहीं मिला
रोज रात में
चौके में पकती मक्की की रोटी की महक
जब याद आती थी
एक बार तो इस तरह लगता था
कि तू बुरकियाँ तोड़–तोड़ मुँह में डाल रही है
उन पलों में मैं
एक आह से बढ़कर कुछ नहीं होता था
माँ, तू तो मुझे हमेशा
अपना सुशील बेटा ही कहती रही थी
यह जानते हुए भी
कि सुबह की पहली किरण से लेकर
रात की आखिरी हिचकी तक
मैंने तेरे लिए छोटे–छोटे दुख पैदा किए थे
मुझे वह सब-कुछ अच्छी तरह याद है
कि मेरी रातों की आवारगी को लेकर
कैसे तू सूली पर टंगी रहती थी
बस इस आस में
कि मेरा बेटा कभी तो कोख का दर्द पहचानेगा
कभी तो बेटों की तरह दस्तक देगा...
पर माँ जब मैं लौटूंगा
ज़्यादा से ज़्यादा क्या लेकर आऊंगा
मेरी आँखों में होंगे मृत सपने
मेरे संग मेरी हार होगी
और वह थोड़ा सा हौसला भी
जब अपना सब कुछ गवाँ कर भी
आदमी सिकंदर होने के भ्रम में रहता है
और फिर तेरे लिए छोटे–छोटे खतरे पैदा करूंगा
छोटे–छोटे डर पैदा करूंगा
और मैं क्या लेकर आऊंगा।