इस बार भी चैता हवा मधु के बान मार गयी
और बृद्ध जर्जर अश्वत्थ ने पुनः प्रार्थना के श्लोक रचे।
इस बार भी मधुमान सूर्य ने
हन-हन मारे मधु के बान
पलाशदेह पावक जल उठा रूपमय,
रसमसा गई लताओं की देह;
कोंचे-कोंचे टूसे-टूसे कंछी-कंछी सर्वत्र
तरुओं की नस-नस में मधुधारा दौड़ गयी
अपादमस्तक सिहर उठा मैं,
सिहर उठे मनुष्य और महीरुह, तरुलता, विरुध
युवा या अथर्वगात।
घासों में हरी साँस आ गयी;
क्योंकि चैता मधु के बान मार गयी।
अजी अश्वत्थ ने ये प्रार्थना के श्लोक रचे :
हे रूद्र करो प्राणदान!
तमाम नये पत्तों पर टूसों पर
झलक उठे झलमल ताम्राभ धूप
धूप पर रूप और रूप पर मन,
और मन पर यौवन की उज्ज्वल
असि-आभ चमक उठे
धूप रूप मन और यौवन को
मोहकता विह्वलता का
तृषा का मृग्जल का करो दान।
हे निशा विभावरी करो दान
अँजुरी अँजुरी भर यौवन मन और काम
चक्षु-चक्षु, पात-पात दीप बन जाँय
जल उठे फासफोरस का अंग-अंग
तुमको बेध दे कामना की तीक्ष्ण चक्षुधार
जैसे रसलुब्ध आवाहन आदिम इन्द्र का
मेघश्यामलोलुप। आग्रह किसी आदिम जार का
वैसा ही मन और यौवन, वैसा ही काम गरल
हमें महानिशा करो पुनः दान।
हे महिमान रस रामचन्द्र
सृष्टि सोमकला ढालो अंग-अंग
जीवन दो जीवन : तृप्ति और स्वाद
रस और प्राण! हे महिमान चन्द्र,
बरसो रस की फुही सहस्रधार
बरसो आरोग्य और आयुर्दाय
मैं जर्जर पर्णहीन शाखामात्र
तो भी मैं ही सनातन शिशु सहस्रमुख पल्लव खोल
आज बैठा हूँ,
ओ तरुविरूथों के रस के स्वामी
महिमान चन्द्र।