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जल / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
सौ योजन
मरु भूमि पार कर
रचना के प्रान्तर में जाना
बिन छलकाये
मन के घट में
बूंद-बूंद जल भर कर लाना
उस प्रान्तर में
घनीभूत इतिहास की तरह
संचित-समूहिक-अनुभव की
चट्टाने हैं
काली-काई भरी-बड़ी बेडौल
जहां से बूंद-बूंद कर
टपक रहा है समय
उसी में संस्मृतियां हैं
और उसी में स्वप्न
उसी में धीरे-धीरे
निर्झर-निर्झर
धारा - धारा
नदी हमारी आशाओं की
कल-कल छल-छल
जन्म ले रही
चट्टानों की कठोरता की
पोर-पोर में
भरा हुआ जो अन्तर्जल है
बहुत सघन है
बहुत तरल है
इसी प्राक्जल में ही पहला
जीवन का अंकुर फूटा था
और आदि कवि का अन्तर्घट
भी इस जल में ही टूटा था
यही अमृत है
यही गरल है
इसको पाना
इसे समझना
इसको पीकर
तिरपित होना
कभी सुगम है
कभी जिटल है।