भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जलती समिधाएँ / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
अटीं-पटीं दीवारें रहतीं
विज्ञापन के पर्चों से
गयी कमाई दाल-भात में
ले डूबी कभी दवाई
सुरसा-सा मुँह बाये बैठी
आँगन-द्वारे महँगाई
प्याज झरप भर रहा आँख में
तीखा ज्यादा मिर्चों से
किया जतन पर जोड़ न पाये
मिल-जुलकर दाना-पानी
एक तिहाई तेल निकलता
पिर करके पूरी घानी
कद्दा लागत जोड़-घटा कर
उबर न पाये खर्चों से
नारों में छुप गयी हकीकत
करतूतें सब मंचों की
चिड़िया भूखी थी भूखी है
पौ-बारह सरपंचों की
धू-धू-कर जलतीं समिधाएँ
देवालय तक चर्चों से