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जली नदियों के किनारे / कुमार रवींद्र
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ढो रहे हैं ईंट-पत्थर और गारे
दिन बेचारे
छाँव की पगडंडियों में
रोज़ आते
काँच की मीनार पर
सूरज चढ़ाते
लौट जाते साँझ होकर थके-हारे
दिन बेचारे
फूल की बारादरी में
धूप बोते
लौटकर फिर
खण्डहर में रोज़ सोते
प्यास होते जली नदियों के किनारे
दिन बेचारे