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जहाज़ का पंछी / कृष्णमोहन झा
Kavita Kosh से
जैसे जहाज़ का पंछी
अनंत से हारकर
फिर लौट आता है जहाज़ पर
इस जीवन के विषन्न पठार पर भटकता हुआ मैं
फिर तुम्हारे पास लौट आया हूँ
स्मृतियाँ भाग रही हैं पीछे की तरफ़
समय दौड़ रहा आगे धप्-धप्
और बीच में प्रकंपित मैं
अपने छ्लछ्ल हृदय और अश्रुसिक्त चेहरे के साथ
तुम्हारी गोद में ऐसे झुका हूँ
जैसे बहते हुए पानी में पेड़ों के प्रतिबिम्ब थरथराते हैं…
नहीं
दुःख कतई नहीं है यह
और कहना मुश्किल है कि यही सुख है
इन दोनों से परे
पारे की तरह गाढ़ा और चमकदार
यह कोई और ही क्षण है
जिससे गुजरते हुए मैं अनजाने ही अमर हो रहा हूँ…