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ज़ंजीर / जय गोस्वामी / जयश्री पुरवार
Kavita Kosh से
वृक्ष है, ऐसा भ्रम होता था
फिर किसी दिन सोचा – परिन्दा है
अब मेरी सब बातें
जितनी दूर तक जाती है
सब तालाब सूख जाते हैं ।
नदी में, बस, रेत ही रेत दिखाई देता है
समन्दर तो मीलों दूर तक सिर्फ़ गीला कीचड़ –
हज़ारों मरे हुए परिन्दे गड़े हुए हैं वहाँ
गड़ी हुई हैं मरी हुई मछलियाँ ।
नील रंग की तिमिंगल। सफ़ेद मगर ।
तट पर अकेले ही बैठा हूँ
सर पर आकाश में छाए हुए हैं
तेज़ बरसने वाले काले घनघोर बादल ।
मृत्यु से पहले, सभ्यता
मुझे क्या देकर जाएगी – सोच न पाया –
जो सिर्फ़ अपने पैरों की ज़ंजीर ही
दे गई है मुझे ।
जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित