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ज़ख्म पर ज़ख्म वह नया देगा / रमेश 'कँवल'

ज़ख़्म पर ज़ख़्म वह नया देगा
रोज़ मिलने का सिलसिला दे

जुल़्फ लब गाल आँख का जादू
ख़्वाब सारे लुभावना देगा

शोख नज़रों से जब नवाज़ेगा
हौसले दिल के फिर बढ़ादेगा

क़ुर्ब की रोशनी में संवरेगा
फ़ासलों के दिये बुझा देगा

फूल, शबनम, बहार, बादे-सबा
ज़िन्दगानी का आइना देगा

उसकी सांसों में मेरी ख़ुशबू है
किस तरह मुझको वह भुला देगा

फ़लसफ़ा है पुराना पर सच है
जो भी देगा तुम्हें ख़ुदा देगा

उसकी रहमत के साये में ख़ुशहूँ
चाहतों से मेरी सिवा देगा

भर के बाहों में जिस्म का शोला
एक स्पर्श में बुझा देगा

शीरीं होटों का ज़ायक़ा देकर
ज़िन्दा रहने का हौसला देगा

मैं उभर आउँगा हथेली पर
जब भी ऐ दोस्त तू सदा देगा

शामिले-जुर्म तो है वो भी ‘कँवल'
मुझ को तन्हा मगर सज़ा देगा