भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़ात इशक दी कौण / बुल्ले शाह
Kavita Kosh से
बुल्ला की जाणे, ज़ात इशक दी कौण।
ना सूहाँ ना कम्म बखेड़े, वं´े जागण सौण।
राँझे नूँ मैं गालिआँ देवाँ,
मन विच्च कराँ दुआई<ref>दुआएँ</ref>।
मैं ते राँझा इको होई,
दई लोकाँ नूँ अज़माई।
जिस वेले विच्च बेली दिस्से,
उस दीआँ लवाँ बलाईं।
बुल्ला सहु नूँ पासे छड्ड के,
जंगल वल्ल ना जाईं।
बुल्ला की जाणे, ज़ात इशक दी कौण।
ना सूहाँ ना कम्म बखेड़े, वें जागण सौण।
शब्दार्थ
<references/>