भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िंदगी की बात / हरीश निगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऊँघते दिन छटपटाती रात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

छाँव के छींटे नहीं बस धूप है
हर कदम पर एक अंधा कूप है
छत नहीं
सिर पर खड़ी बरसात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

क्या कहें इस पार ना उस पार के
हो गए हम नाम केवल धार के
हैं भँवर
कितने लगाए घात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात

नाव काग़ज़ की बनाता है शहर
बाजियों से हम नहीं पाए उबर
जेब में
लेकर चले हैं मात
क्या करें हम
ज़िंदगी की बात