ज़िंदा जिस्म का मर्सिया / जावेद आलम ख़ान
वे यातना बद्ध याचनाएँ थी
निराशा उनके जीवन का स्थाई भाव था
प्रताड़ना उनके जीवन में गर्भनाल से जुड़ी थी
उनकी आँख में उजाला था और स्वप्न में अँधेरा
उनके आंसू भीतर ही घुटकर मर गए
उनकी पुकार कभी लांघ न सकीं अधरों की दीवार
और हमेशा के लिए कैद हो गईं
वे अर्ध विकसित आस्थाएँ थीं
जिन्हे मोती की तरह सीप में पलना था
लेकिन उन्होंने आसमानी चाह में अंड गर्भ को चुना
और समय पूर्व जन्मी आशंकाओं के रूप में निकली
वे बदचलन वंचनाएँ थीं
जिनकी नियति बन चुका था प्यार का व्यापार
उन्हे मूल्य तो खूब मिला पर प्रेम कभी नही
वे पुरुष की अतृप्त वासनाओं का कूड़ेदान थीं
उन्हे उगलने से पहले रसीला फल समझकर खाया गया
उनका दुख गाया नहीं बजाया गया
जिन्हे समझा किसी से नहीं सिर्फ समझाया गया
पान की गिलौरी की तरह दाढ़ों में दबाया गया
उन्हे खाया नहीं-नहीं चबाया गया
और फिर किसी पीकदान में थूक दिया गया
वे नृत्यहीन अर्धनग्न वेश्याएँ थीं
जिनकी देह देहरी की मिट्टी से गई गुजरी मानी गई
जिनका रूप सराहा नहीं रौंदा गया
और ढलती उम्र के साथ किनारे किया जाता रहा
वे टूटे तार वाली वीणा-सी बेसुरी बजती थीं
उनकी आत्मा के घाव कभी नहीं भरे
उनके दाग किसी गंगा में नहीं धुले
उन्हे पवित्र करने के लिए न कोई साबुन बना न मंत्र
स्वच्छंद भोग वाली उनकी देह कभी नहीं रही स्वतंत्र
यह अलग बात है
कि इनकी देहरी की मिट्टी से प्रतिमा बनाकर पूजा जाता रहा
रमंते तत्र देवता का स्वांग चलता रहा
वे आज़ाद देश की गुलाम नागरिक थीं
अपराधी मानसिकता की शिकार
वे अनिच्छित भाव से पुरुष की वासना संभालती रहीं
टके टके गालियाँ खाकर पेट पालती रहीं
उनकी मौत के लिए कोई मर्सिया नहीं बना
उनकी जर्जर काया छोड़ने वाली आत्मा में शरीर से अधिक घाव थे
उनकी उत्तराधिकारी होने का कोई दावा नहीं हुआ
वे समाज में रहकर समाज के फ्रेम से बाहर थीं
वे पुरुषों के लिए अंधेरे में प्रिया थीं उजाले में कुलटा थीं