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ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे? / शैलेन्द्र सिंह दूहन
Kavita Kosh से
खुद को यों भरमाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
शब्द बिना मर्याद हुए हैं
भावों पर आघात हुए हैं,
संवादों पे पहरे हैं पर
अपनी जीभ दबाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
गूँगी है पायल की छन छन
सहमे-सहमे काजल कंगन,
कुमकुम कजरे के रोदन की
बेबस चीख भुलाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
झोपड़ियों में भूख पड़ी को
दरबारों की खूब चढ़ी को,
कुछ झूठे नारों के बल पे
अच्छे दिन बतलाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
मंदिर मस्जिद बदल रहे हैं
मानवता को निगल रहे हैं,
गंगा के मैले पानी को
निर्मल नीर बताऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?
खुद ही अपनी लीक मिटाकर
ऊम्मीदों के दीप बुझा कर,
डमका कर ये तेरी डुग्गी
तेरे सुर में गाऊँ कैसे?
ज़िंदा मक्खी खाऊँ कैसे?