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ज़िन्दगी! तेरे कई रूप दिखे / ब्रह्मजीत गौतम

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ज़िन्दगी ! तेरे कई रूप दिखे हैं अब तक
धूप और छाँव के ही दौर चले हैं अब तक

तेरी ख़मदार निगाहों का असर ऐसा हुआ
सुबह से घर का पता पूछ रहे हैं अब तक

गीत जो तूने मुहब्बत के सुनाये थे कभी
दिल के गलियारों में वो गूँज रहे हैं अब तक

वो ग़रीबों के भला रंजो अलम क्या समझें
धूप में जो न क़दम-भर भी चले हैं अब तक

जिनके सीनों में हैं हिम्मत के भड़कते शोले
वो रुके थे न रुकेंगे, न रुके हैं अब तक

वस्ल के दौर की बातें मैं भुला दूँ कैसे
तेरी चाहत के हसीं फूल खिले हैं अब तक

आँधियाँ आएँ मगर ये न बुझेंगे ऐ ‘जीत’
दीप जो तूने जलाये थे, जले हैं अब तक