ज़िन्दा शहीद / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'
अरे नौजवान, तुम्हें क्या बताएँ
कि किन मुश्किलों से आज़ादी ले आए
गजब ज़ुल्म की आँधियाँ चल रही थीं
कयामत की उमड़ी थीं सौ-सौ घटाएँ
जमीं धँस रही, आसमाँ फट रहा
जान पर आ पड़ी, काँपती थीं दिशाएँ
मगर हम थे ऐसे कि चट्टान जैसे
अड़े रह गए, ना तनिक डगमगाए
अजब बेरहम हो गई थी हुकूमत
अजब बेबसी का था ज़ालिम ज़माना
हम अपने ही घर से बेदख़ल यूँ हुए थे
कि मरघट में भी था न अपना ठिकाना
जो थे गैर, वे तो भले गैर थे ही
जो अपने भी थे, हो गए थे पराए
मिटे जा रहे थे घरों के घिरौंदे
कुटुम्ब और कबीले छुटे जा रहे थे
मगर एक धुन के हज़ारों दीवाने
कहीं एक लय पर जुटे जा रहे थे
तमन्ना थी, गोरी हुकूमत मिटा के
ग़रीबों की देशी हुकूमत बनाएँ
सभा चल रही थी, जुलूस चल रहा था
अहिंसा का आदर्श भी चल रहा था
चले जा रहे थे बढ़े डेपुटेशन
सुलह का परामर्श भी चल रहा था
मगर हमने देखा कि बेकार है सब
तो आख़िर बग़ावत का झण्डा उठाए
सजा कर के बलिवेदियाँ अपने हाथों से
सर पे लपेटे कफ़न हम खड़े थे
फिरंगी उधर था मशीनों के पीछे
इधर शाम में हम निहत्थे अड़े थे
बरसती थी गोली धुआँधार लेकिन
बढ़े पाँव हमने न पीछे हटाए
अभी हाथ में चिह्न हैं हथकड़ी के
अभी पाँव में बेड़ियों के हैं घट्ठे
कभी देख लेना खुला जब बदन हो
कि हैं बेंत के दाग कितने इकट्ठे
मगर यह न समझो कि हम रो पड़े थे
सदा मौज़ में हम रहे, गीत गाए
बढ़े जा रहे हों नए टैक्स दिन-दिन
कि लाचार जनता मरी जा रही हो
करोड़ों को रोटी-लंगोटी न हो, पर
अमीरों की थैली भरी जा रही हो
बताओ तुम्हीं नौजवानों, कि ऐसे में
कैसे कोई रह सके चुप लगाए
जहाँ न्याय नीलाम होता हो खुल कर
जहाँ रिश्वतों का ही हो बोलबाला
हर आॅफ़िस जहाँ डाकुओं का हो अड्डा
औ’ कानून का पिट गया हो दिवाला
थी ऐसी हुकूमत की साया से नफरत
हम ऐसी हुकूमत की धज्जी उड़ाए
रचनाकाल : 29.04.1959