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ज़ेरे-ज़मीं कभी, भी सिद्रा-नशीं हूँ मैं / रतन पंडोरवी

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ज़ेरे-ज़मीं कभी, भी सिद्रा-नशीं हूँ मैं
अब और क्या बताऊं कहां का मकीं हूँ मैं

आना पड़ेगा आप ही को मुझ नहीफ़ तक
खुद चल कर आ सकूँ वो तुवाना नहीं हूँ मैं

ऐ आस्ताने-यार मुबारक ये इफ़्तिख़ार
बेहरे-सुजूद आज सरापा जबीं हूँ मैं

क्या मुझ से पूछता है मिरी महवियत का राज़
होता हूँ तेरे पास बज़ाहिर कहीं हूँ मैं

मुहमल-नशीं की खोज में सहरा उलट दिये
आखिर खुला कि आप ही मुहमल नशीं हूँ मैं

दम भर में बुलबुले का घरौंदा बिगड़ गया
कहता था किस हवा में कि फ़ानी नहीं हूँ मैं

मंज़िल पे जा के ग़ौर से देखा तो ये खुला
पहले था जिस मक़ाम पर अब तक वहीं हूँ मैं

क्यों हो मुझे तलाश हसीनों की ऐ 'रतन'
देखो मिरी निगाह से खुद ही हसीं हूँ मैं।