जागहु-जागहु नंद-कुमार / सूरदास
राग बिलावल
जागहु-जागहु नंद-कुमार ।
रबि बहु चढ़्यौ, रैनि सब निघटी, उचटे सकल किवार ॥
वारि-वारि जल पियति जसोदा, उठि मेरे प्रान-अधार ।
घर-घर गोपी दह्यौ बिलोवैं, कर कंगन-झंकार ॥
साँझ दुहन तुम कह्यौ गाइ कौं, तातैं होति अबार ।
सूरदास प्रभु उठे तुरतहीं, लीला अगम अपार ॥
भावार्थ :-- `नन्दनन्दन! जागो, जाग जाओ! सूर्य बहुत ऊपर चढ़ आया, पूरी रात्रि बीत गयी, सब किवाड़ खुल गये ।' माता यशोदा (अपने लाल के आयुवर्धन की कामना से उस पर) घुमा-घुमा कर जल पीती हैं (और कहती हैं-) `मेरे प्राणों के आधार ! उठो! घर-घर में गोपियाँ (अपने) हाथ के कंकणों की झंकार करती दही मथ रही हैं, तुमने संध्या समय गाय दुहने के लिये कहा था, इसलिये अब देर हो रही है !' सूरदास जी कहते हैं -(यह सुनते ही) मेरे स्वामी तुरंत उठ गये । इनकी लीला अगम्य और अपार है ।