जाग्रत करो ज्योति अंतर की / विमल राजस्थानी
बीती आधी रात, साँवले बादल गुमसुम, मौन
कुहनी के बल लेटे कवि के अन्तर में यह कौन-
बोल उठा-मत लिखो आज कवि ! मिलन-विरह का गाना
देखो उधर-बादलों की आँखों का भर-भर आना
उर-शतदल में युग-युग से जो रहते आये बंद
करते हैं याचना मुक्ति की नयी क्रान्ति के छंद
उदित राष्ट्र-रवि की किरणों को अश्रु-अर्घ्य देने को
सहम रहे हैं मेघ धरित्री का चुम्बन लेने को
आज सभी आँखों में गंगा उमड़े, यमुना छलके
तृषा देश की पी न सकेंगे छींटे गंगाजल के
नव निर्माण सजाना है, है नयी आग सुलगानी
इस निर्माण-यज्ञ में डालो नयन-नयन का पानी
कोटि-कोटि जन तड़प रहे हैं मुट्ठी भर दानों को
देकर रक्त हृदय का तृप्त कर रहे हैवानों को
हमें गिरा देनी हैं सोने-चाँदी की दीवारें
हमें ढाहनी हैं धनिकों की खून-सनी मीनारें
चाह रहा ‘सौमित्र’ हमारा नया समाज बनाना
आज ‘जवाहर’ के कंठों में गुंजित यही तराना
इस निर्माण-यज्ञ में जाग्रत करो ज्योति अंतर की
खुशियाँ तभी लौट पायेंगी भारत के घर-घर की