जाड़ा : पांच कविताएं / शहंशाह आलम
एक
कहां थी वह झील सूर्य को
अपने ऊपर उगाती-चमकाती
कहां थी वह पगडंडी सुबह वाली
कहां थीं स्वप्न वाली तितलियां
और तट पर लगी वह नाव
रहस्यमयी करोड़ों बरस से
कहां थीं वे स्त्रियां जो निकलती थीं
गंगा-स्नान के लिए रोज़
अपने-अपने दलों के साथ लोकगीत गाती हुईं
आज तैरते थे बस बर्फ के टुकड़े
हमारी देह में पूरी चतुराई से
दो
यह एक युग का था आरंभ या अंत
या यूं ही गुज़र जाने वाला
दिवस कोई शापित
बजता है न मालूम क्या-क्या अनोखा
समुद्र के भीतर उस लड़की के बेहद पास
अभी-अभी परन्तु चिड़ियों का
एक जोड़ा उतरा हमारी छत पर
गाता जीवन के सारे छन्दों को एकाग्र
तीन
स्थापित सुसज्जित उत्तेजित
उत्साहित और दृश्यमान
उसकी नाभि का सब कुछ सब कुछ
पृथ्वी थी रौशन उसी के प्रेम में
मृत्यु को भगाती इस कालखंड से
स्तब्ध् अटका मैं भी तन्मय
इन्हीं दृश्यों इन्हीं बिंबों में मंत्रबिद्ध
चार
आज सबसे अधिक क्रोधित हुआ वह गूंगा
सबसे अधिक गुस्साई वह औरत
सबसे अधिक झल्लाया वह रिक्शेवाला
आज हड्डियां बजती थीं उनकी चतुर्दिक
आज अचानक सब
सिर्फ क्रोधित हुए
सिर्फ गुस्साए
सिर्फ झल्लाए
इस शिविर में
इस भूखंड पर
पांच
इस जाड़े में हमारे गुणों का गुणगान नहीं होगा
किसी सर्कस में जादूगर के यहां या मदारी के घर
इस बार घात पर घात होगा दसों दिशाओं में
इस बार तोते नहीं उचारेंगे ऋषियों और सूफियों के शब्द
इस बार सुबह होगी हमसे बाहर और अंधेरा भीतर
इस बार जीत होगी शत्रुओं की प्रतिष्ठा भी उन्हीं की
इतिहास भी उन्हीं का भूगोल भी उन्हीं का होगा इस बार।