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जाड़ोॅ कै दिन / प्रदीप प्रभात
Kavita Kosh से
आय सोमवार छेकै, हटिया के दिन छै।
अगहन के दिन छै, घरोॅ मेॅ धान छै।
धानोॅ रोॅ सिवा, कोय दोसरोॅ नज अनाज छै।
धानोॅ केॅ बेची, लेना निमक, हरदी, दाल छै।
जाड़ो रोॅ दिन छै, बुतरू सिनी कांपै छै।
अंगा, टोपी, सुटर बास्ते, बस बान्है एक गांती छै।
जाड़ो में दलकै छै, रौंदी रोॅ असरा में ठाड़ोॅ छै।
खड़ा छै दुआरी पर, कस्सी केॅ दोनोॅ मुट्ठी छै।
थर-थर कांपलोॅ जाय छै, आरॉ बोलै छै।
माय गे आय छेकै पुनसिया हटिया।
हमरा की कहै छै, कहै नेॅ बापोॅ केॅ।
जौनेॅ धान बेची केॅ पीयै दारू छौ।
लाजेॅ नै लागै छै, बुतरू सिनी ठुठरै छै जाड़ो मेॅ।
आय जोॅ नै लानतौ, अंगा, सुटर आरोॅ टोपी।
हांप की लियै कस्सी केॅ, भरी हांपकन छाती।