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जानकी रामायण / भाग 10 / लाल दास

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दोहा

कृपा करथि तौं विश्व ई सुखसौं पोशल जाय।
प्रकट क्रोध भेले तनिक तेहिखन जाय नशाय॥

चौपाई

हम देखल एक दिन निज आँखि। इन्द्रहुकाँ जनमल छल पाँखि॥
राज्य मदेँ मति अति अधलाह। सोम पीवि उन्मत्त भेलाह॥
रतिकौतुक कय रम्भा संग। बन बिहरय चललाह उमंग॥
खसथि पड़थि मतिरहित छलाह। लक्ष्मीकाँ लागल अधलाह॥
एैरावत पर चढ़ि निर्ल्लज्ज। नन्दनवन अयलाह सुसज्ज॥
एतसौं दुर्वासा चललाह। इन्द्रक लग से पहुँचि गेलाह॥
मोर निर्मालेँ आशिष देल। से सुरपति फेकल अवहेल॥
मुनिकाँ बढ़ल इन्द्रपर क्रोध। कहल भ्रष्ट हो रे दुर्बोध॥
लक्ष्मीकाँ पुनि कहल मनाय। इन्द्रक त्याग करू हे माय॥
सुरपुर पावि बढ़ल अभिमान। कयल कठिन विष्णुक अपमान॥
से सुनि लक्ष्मी हलचलि भेलि। त्यागल अमरपुरी अवहेलि॥
क्षीरोदधि में कयलनि वास। तेहिखन अमरावति भेल नाश॥
दानव वली कयल हठ मारि। सुरकाँ देल निकालि उजारि॥
पड़ले इन्द्रकाँ विपति अपार। हरण भेल सुख अंस अहार॥
भूषण वाहन वसन विहीन। क्षुधा कृषा वश अनुक्षण दीन॥
दुखसौ छटपट करथि सदाय। अमर प्रभाव प्राण नहि जाय॥
एहि विधि गेल कतेक दिन वीति। सहल देव दारुण दुख भीति॥


दोहा

सकल अमर गिरिखोह में वैसि कयल सुविचार।
विनु लक्ष्मीक कृपेँ हमर नहि अछि प्राण उबार॥

सोरठा

जेहि विधि होथि सहाय महालक्ष्मि देवक उपर।
सभ मिलि करिय उपाय नहि तौं जायत प्राण अब॥

चौपाई

तखन गेला सुरगण विधि निकट। कहल अपन सभ संकट विकट॥
ब्रह्मा कतेक इन्द्रकाँ हंटल। लक्ष्मिक महिम सुनाओल पटल॥
तहँसौँ पुनि अयला कैलास। शिव देखल सभ देव उदास॥
सुनल जखन इन्द्रक दुर्बुद्धि। क्षुब्ध भेला पुनि हटल कुबुद्धि॥
सभक ईश लक्ष्मी भगवान। तनिक कयल बड़ गोट अपमान॥
भेल अहाँकाँ समुचित दण्ड। एहन होइ जनु पुनि उद्दण्ड॥
विधि शिव सभ सुर काँ लय संग। चल अयला बैकुण्ठ अभंग॥
हमर शरण सुरपति सुर धयल। निज दुख कहि कति रोदन कयल॥
सुरगण दुखित छलाह हताश। व्याकुल श्रीहत परम उदास॥
तखन शरण सभकाँ हम देल। अभय सहित सन्निधि कय लेल॥
लक्ष्मीकाँ कति कहल बुझाय। बड़ दुख सहलनि सुरसमुदाय॥
फल पौलनि कयलनि जे काज। हिनका दिअ पूर्वक सुख राज॥
अपन अंससौं अहँ बहराउ। सुरहित अमरपुर चलि जाउ॥
सुनि लक्ष्मी कहलनि अनुकूल। मथथु सिन्धु हयतनि स खमूल॥
से वुझि हमहु कयल उद्योग। मन्दर शेशक भेल नियोग॥
दानव देव दुहु दिशि धयल। तखन क्षीरनिधि मंथन कयल॥
कतिधा उतपति सुन्दर रत्न। देव दनुज मिलि लेल सयत्न॥

गीतिका

तखन लक्ष्मिक क्षीरनिधिसौं भेल आविर्भाव ओ।
कोटि रवि राशि ज्योति धवलित अमित तेज प्रभाव ओ॥
सहस दल भल कमल आसन तप्त कंचनरूप ओ।
सुमुखि ईषद्धास करयित चारि बाहु अनूप ओ॥
सकल सुरकाँ देल दरशन आधि दुख हरि लेल ओ।
कयल सुरपति सविधि पूजन सुर सहित एकमेल ओ॥
अमृत कंचन कलश भरि भरि शुण्डसौं गहि धयल ओ।
चारि ऐरावत चतुर्दिशि मुदित सिचन कयल ओ॥
अजर वस्त्र सुगन्ध भूषण पुष्प धूप अमोल ओ।
भोग षटरस अमिय मधुमय देल पुग ताम्बूल ओ॥
मूल मंत्र विधानपूर्वक जपल सुर मन लाय ओ।
विनय विनति विलाप वहुविधि कयल श्रीपद ध्याय ओ॥
कयल अपनहि जाय अचला अमरपुर सुख बास ओ।
कहल निर्मल यश सुधारस लाल श्रीपद आश ओ॥

दोहा

तेहि दिनसौं सुरनाथकाँ अचल राज्य सुख भेल।
ऋद्धि सिद्धि सम्पति सुमति अपनहु लक्ष्मी देल॥

सोरठा

सुनु नारद मन लाय अति रहस्य लक्ष्मीचरित।
अहँकाँ देव बुझाय भक्तशिरोमणि हमर अहँ॥

चौपाई

महालक्ष्मि पूरण अवतार। महिमा जनिक अगम्य अपार॥
सबमें मुख्या प्रकृति प्रधान। सैह विश्वरूपी नहि आन॥
से ब्रह्माण्डक आत्मा रूप। स्थावर जंगम तनिक स्वरूप॥
जे किछ मिथ्या सत्य पदार्थ। तनिकहिसौं से सकल सदर्थ॥
विधिकाँ देल विलक्षण शक्ति। करबौलनि सब सृष्टिक विभक्ति॥
शक्तिमान विधि बारम्बार। कयल तखन सृष्टिक व्यापार॥
विष्णुक माया सैह कहाय। सृष्टिक पालन कयल सदाय॥
पालन पोषण प्राणाधार। नित्य कयल नित्या संसार॥
जावत तकयित छलिह सुदृष्टि। पोशल गेल सुखे सभ सृष्टि॥
अंत जखन पुनि मूनल आँखि। प्रलय भेल सभ मुइला झाँखि॥
शिव संग दुर्गा तनिके अंश। कयल सकल सृष्टिक विध्वंस॥
कल्प कल्पमें सृष्टि सुनीति। करथि महालक्ष्मी एहि रीति॥

सोरठा

महिमा तनिक अनन्त सहसमुखो नहि कहि सकथि।
तनिक पाव के अन्त अपनहि जानथि भेद ई॥

चौपाई

लगला कहय विष्णु भगवान। सुनु नारद पुनि कथा पुरान॥
अतिरहस्य किछ कहल न जाय। लक्ष्मिक अद्भुत चरित सुहाय॥
मन पड़ जखन तनिक व्यापार। चित चंचल नहि रहय सम्भार॥
सुमरि सुमरि से तनिक स्वरूप। छन छन क्षुब्ध्र रही हम चूप॥
हम जनइत छी तनिक चरित्र। बड़ विचित्र सभ भाँति पवित्र॥
कहँ धरि कहब कहल नहि जाय। अकथनीय महिमा समुदाय॥
भेल जखन सृष्टिक संहार। क्यो नहि रहल दहल संहार॥
सकल चराचर जगदाकार। छलिह महालक्ष्मी साकार॥
परापरक सम्बन्ध अनूप। केवल महालक्ष्मि एकरूप॥
सैह सनातनि प्रकृति प्रधान। मूर्तिमान वट वीज समान॥
देखि सकल जलमय संसार। कयल ततय से ई व्यापार॥
शेशनागकाँ लेल विछाय। तेहि पर हमरा देल सुताय॥
महा योगनिद्रा से भेलि। हमरा नयन अयन कय लेलि॥
हम भय गेलहु तनिक आधीन। अचैतन्य सुतलहु अति नीन॥
की हो कतय न बुझना जाय। रहलहु निद्रेँ भेर सदाय।
सकल चराचर सूक्ष्म स्वरूप। लक्ष्मी लेल बनाय अनूप॥
अपन अंस बुझि जगसमुदाय। धयल विश्वकाँ देव जोगाय॥
बहुत काल धरि रहि एकान्त। भेल तखन पुनि कल्पक अन्त॥
विष्णुक नाभिकमलमें जाय। ब्रह्माकाँ लेल सैह बनाय॥
अपने लक्ष्मी ततय अनूप। सहथि अलक्षित निद्रा रूप॥
तेहि अन्तर भेल जे व्यापार। से रहस्य सनु मुनि विस्तार॥
कति दिन हमरा सुनना भेल। दुष्ट दैत्य दुइ गोट बनि गेल॥
हमरा कानक मलेँ मलान। मधु कैटभ जनमल बलवान॥
चतुराननसौं कयलक मारि। ब्रह्मा मनमें मानल हारि॥
लक्ष्मीकाँ विधि कहल मनाय। से हमरा तहँ देल जगाय॥
निद्रा त्यक्त भेलें हम जागि। देखल दैत्यसौं बिधिकेँ लागि॥
हमहू कयलहु युद्ध अपार। एकौ असुर नहि भेल संहार॥
स्तुति देवीक कयल हम जखन। मुइल असुर मोहित भय तखन॥

दोहा

मधु कैटभ केर मेदसौं मेदिनि भेल विस्तार।
कयल विलक्षण शक्ति पुनि तेहिपर सृष्टि पसार।