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जानकी रामायण / भाग 12 / लाल दास

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चौपाई

नारायण पावि उपदेश। विदा भेला मन हरष विशेश॥
मन मन जपयित लक्ष्मिक नाम। गवयित नामहिमें गुण साम॥
अन्तःपुर चललाह सकाश। जतय महालक्ष्मीक निवास॥
द्वार द्वार देवीगण ठाढ़ि। खड्ग शूल धनु शर असि काढ़ि॥
कोटि कोटि तहँ शक्ति अनूप। पहरा देथि विलक्षण रूप॥
मुनिकाँ शान्त सरलचित जानि। कतहु न रोक कतहु नहि हानि॥
सभकाँ नारद करथि प्रणाम। वाट देखावथि से सभ वाम॥
एहि प्रकार घुमि सभ प्राकार। पहुचलाह गढ़खाइक पार॥
सुधासमुद्रक परिखा सात। कंचन द्युति जलचर जलजात॥
कनक घाट मणिमय सोपान। तोर तीर मंडप उद्यान॥
जेहिमें कंचन मणिमय सेतु। बान्धल आवागमनक हेतु॥
तेहि बिच नाओ हजार हजार। देखल नारद अवयित पार॥
निज निज नाओ चढ़ल सभ देव। आवथि करय समा पद सेव॥
नित्य क्रिया कारण एहि भाँति। सभ दिन आवथि अमरक पाँति॥
चढ़ले सभजन अपन जहाज। श्रीपद पूजथि विवुध समाज॥
क्यौ लक्ष्मीक चरण कर ध्यान। क्यौ मुद्रा कर विविध विधान॥
क्यौ जन एक चरणसौं ठाढ़। अन्तःकरण भक्ति रस गाढ़॥
क्यौ जन करयित दण्डप्रणाम। सानुराग गवयित क्यौ साम॥
क्यौ जन जपयित लक्ष्मिक मंत्र। अति एकाग्र मन ध्यान स्वतंत्र॥
स्तोत्र कवच करयित क्यौ पाठ। सुधासिन्धुमें अमरक ठाढ़॥
सुधासमुद्रक तीरहि तीर। अति सुन्दर गिरिवट गम्भीर॥
तेहि पर सघन विपिन रमणीय। सकल प्रफ्फुलित अति कमनीय॥
प्रचति पवन सघन वन डोल। झरय सुमन जल भरय अलोल॥
अति सुगन्धि सुमनक सम्भार। सुधाधारमें विविध प्रकार।
जलपर शोभ सुमन कति रंग। पहिरल जल जनि भूषण अंग॥
सुरसुन्दरि चढ़ले निज नाव। सुमन चयन कर कह सद्भाव॥
एहन सुगन्धि विलक्षण फूल। नन्दनबनहु न देखल अतूल॥
वन देवी पूजल श्रीचरण। एहि फूलक बनबी आभरण॥
सभ जनि बनबथि उत्तम माल। पहिरि बढ़ावथि पुलक विशाल॥
एहि विधि आवथि विवुध सशक्ति। नारदकाँ देखि बाढ़ल भक्ति॥
चलला तहँ सौं अति अगुताय। हमहि प्रथम पूजव पद जाय॥

दोहा

सातो सुधासमुद्रसौं झटदय उतरि मुनीश।
हलचल चल अयलाह भल सुभग बाटिका दीश॥

चौपाई

देखल तहँ उत्तम उद्यान। स्वर्णप्रभा सम विटप वितान॥
स्फुरित सघन पल्लव तरु अंग। हरित पीत अरुणित कति रंग॥
कल्पवृक्ष मन्दार अपार। देखल विपिन महाविस्तार॥
झरल अमृत फल विटप अनूप। अमर प्राण पोषक सुख रूख॥
फूजित जेहि पर विविध विहंग। लक्ष्मी-बीजक गान तरंग॥
गुल्म लता तरु पाँतिक पाँति। पल्लव शाखा सघन सुभाँति॥
परम सुगन्धि प्रफुल्लित फूल। अनुक्षण वहय पवन अनुकूल॥
फरय सुमन शोभय मणिभूमि। विधि विरचल जनि कुसुमक भूमि॥
मधुक लोभसौं मधुप अपार। उठि उठि भ्रमय करय गुंजार॥
देखि विलक्षण शोभा पटल। मुनिक नयन वनमें रह सटल॥
संच संच करयित संचार। पहुचलाह अन्तःपुर द्वार॥
देखलनि विविध रत्नमयधाम। अकथनीय मन्दिर अभिराम॥
देखल मणिमय चित्र अनेक। रत्नाकर सन मूर्ति कतेक॥
कि कहव मणिमन्दिरक प्रकास। दिनक निशाक चन्द्रद्युति भास॥
विश्वकर्म्म अपनहि दिनराति। वनवथि रचि रचि रत्नक पाति॥
रत्नसहित रत्नाकर ठाढ़। ऋद्धि सिद्धि जहँ आंगन बाढ़॥
मूर्तिमान सुख सम्पति जतय। इन्द्र कुबेर गनय के ततय॥
जहँ शारदा पाव नहि अन्त। मूक रहथि देखि देखि अनन्त॥

दोहा

के वरनय शोभा अमित मणिमन्दिरक प्रकाश॥
महा लक्ष्मि अपनहि जतय कयल अचल भल वास॥

चौपाई

मणिमय मन्दिर बड़ विस्तार। पहुँचलाह लक्ष्मिक आगार॥
देखल रत्नजटित पर्य्यंक। कनक कमल आसन अकलंक॥
तहँ आसीन रमा जगदम्ब। जनि रवि कोटि किरण एक बिम्ब॥
पूर्ण ब्रह्म सन तेज प्रकाश। दूरहिसौं मुनि मन उल्लास॥
परमानन्दक सुख-समुदाय। नारद लूटय लगला धाय॥
वेरि वेरि झुकि झुकि करथि प्रणाम। हरषेँ मनमें नहि विश्राम॥
त्राहि त्राहि कहि धयलनि चरण। अहँ विनु माय अपर नहि शरण॥
बड़ दुख सहल कहल नहि जाय। अनेक माया विवश सदाय॥
क्षमिय दोष अब परिहरि रोष। सुतपर राखक थिक सन्तोष॥

दोहा

सुनि लक्ष्मी नारद मुनिक आरत बचन विनीत।
हम प्रसन्न जनि डरिय मुनि कहलनि रमा सप्रीति॥

सोरठा

सुनु नारद मन धीर रागद्वेष नहि जखन अछि।
भेल अहँक मन थीर नहि व्यापत माया हमर॥

चौपाई

नारद मुदित सूचित बैसलाह। पूजन मनन करय लगलाह॥
योग बलेँ पूजा उपहार। मंगबौलनि मुनि विविध प्रकार॥
भक्तिभाव षोड़श उपचार। लगला पूजय विधि अनुसार॥
प्रथम कयल मुनि उत्तम ध्यान। अर्पण कयल द्रव्य सविधान॥
सुर निर्मित मणि मय उपहार। देलनि मुनि आसन सुखसार॥
गंगाजल कंचन शृंगार। कयल पाद्य अर्पण जलधार॥
दूर्वा चन्दनयुत जल फूल। अर्ध देल विधिवत सुखमूल॥
तीर्थक जल कर्पूर सुवास। आचमनीय देल सुख वास॥
दधि मधु मधुरस घृत मधुपकै। देल शुद्ध जलपान सतर्क॥
अति सुगन्धि युत तेल फुलेल। देह केश चिकण हित देल॥
कनक-कलश भरि गंगा-नीर। स्नान हेतु देलनि मुनि धीर॥
कनक रचित पट्टाम्बर वेश। देल बसन परिधान विशेश॥
सुर-निर्मित भूषण वर रत्न। जगदम्बाकाँ देल सयत्न॥
उत्तम चन्दन-रस श्रीखण्ड। अनुलेपन-विधि देल सुमण्ड॥
पारिजात आदिक जे फूल। बिल्पपत्र अक्षत समतूल॥
पंकज-माला लघु विस्तार। अर्पण कयल सुगन्धि अपार॥
सुरभि वनस्पति रसमय धूप। देल सभक्ति सुगन्धि अनप॥
तिमिर-विनाशक चक्षु प्रकाश। घृत कर्पूरक दीप सुभास॥
घृत मधुपर्क अमित पकमान। गोरस दुग्ध सुधाक समान॥
विविध मधुर मोदक परमान्न। देल अमृत नैवेद्य शुभान्न॥
गंगाजल झाड़ी भरि लेल। मुख-प्रक्षालन कारण देल॥
एलायुत लवंग मुखशुद्धि। देल सपुग ताम्बूल सुबुद्धि॥
खडऋतु उद्भव उत्तम फूल। माला देल सुरभि सुखमूल॥
चामर-व्यजन कयल मन लाय। दर्पण देल देखाय सुकाय॥
देल पाँच पुष्पांजलि अंत। एहि बिधि पूजा कयलनि संत॥
तहाँ सुचितमन मुनि बैसलाह। मूल सुमंत्र जपय लगलाह॥
मन एकाग्र सुध्यान लगाय। जप कयलनि अति भक्ति बढ़ाय॥

दोहा

तेज रूप अर्पण कयल जप-फल देवो हाथ।
प्रेम प्रदक्षिण नमन विधि कयल मुदित मुनिनाथ॥