जाने क्या खोया क्या पाया? / यतींद्रनाथ राही
झनकी पायल कहीं खेत पर
कहीं किसी ने
विरहा गया।
आये याद
दिवस फागुन के
धुली दूध चाँदनियाँ रातें
माटी की सौंधी गन्धों में
लिपटी वे शहदीली बातें
बैठ नीम की घमछैंयाँ में
बुने रेशमी स्वप्न सलोने
मेड़ खेत की
लहलह फ़सलें
उल्लासों के वे मृग छौने
महानगर में आकर हमने
जाने क्या
खोया क्या पाया?
रिश्तों का वह प्यार समर्पण
व्यापक धुली खुली वह निजता
घुलता था वाणी में अमृत
और आचरण में कोमलता
हाथों हाथ उठा लेते थे
छानी-छप्पर हो गोवर्द्धन
समझ लिया था चौपालों पर
मानस का
गीता का दर्शन
आज उन्ही के
अर्थ-अनर्थों ने
जाने कितना भरमाया।
आग लगी है
दूर-दूर तक
हैं आतंक दहशतें पग-पग
भद्रलोक में ठगी-ठगी सी
मानवता के छलक रहे दृग
बाहर की इस चकाचौंध में
भीतर हुए खोखले कितने
भटकन उतनी बढ़ी प्यास की
पनघट निकट हो गए जितने
कौंध गयी फिर आज बिजुरिया
फिर यादों का
घन घिर आया!
18.9.2017