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जाहिर है, तुम कल रात / रामगोपाल 'रुद्र'

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जाहिर है, तुम कल रात यहीं पर थे,
हरियाली पर पद-चिह्‍न तुम्हारे हैं;

तारों के फूल बिछे थे, सो अब तक
हो रहे सजल शबनमी किनारे हैं;

रस-बस बेबस जो रहे नयन-बन्‍दी,
खुल रहे कमल में वही इशारे हैं;
वन के जीवन में यों जो आग लगी,
पानी में फूट रहे अंगारे हैं!