भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाहिरै जागति सी जमुना जब बूडै बहै / पद्माकर
Kavita Kosh से
जाहिरै जागति सी जमुना जब बूडै बहै उमहै बह बेनी ।
त्योँ पदमाकर हीरा के हारनि गँग तरँगनि सी सुख देनी ।
पाँयन के रँग सोँ रंगि जाति सी भाँतिहि भाँति सरस्वति सेनी ।
पैर जँहाई जहाँ वह बाल तँहा तहाँ ताल मे होत त्रिवेनी ।
पद्माकर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।