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जिंदगी का घर / शोभना 'श्याम'
Kavita Kosh से
कुछ टूटी-फूटी, रंग-बिरंगी वस्तुएँ
पड़ी रहत है बरसों
छोटी-बड़ी दराज़्ाों में
यादों की तरह...
अनुभवों की तरह
इकट्ठी होती रहती हैं
कुछ नुस्खों की कतरनें
कुछ विजिटिंग कार्ड
अलमारी में बिछे
अख़बारों के नीचे...
आकांक्षाओं की तरह
झाड़ दी जाती है
दराज़्ाों से मिट्टी
और झड़ी-पुछी दराज़्ाों में
फिर से डेरा जमा लेते हैं
नगर पालिका द्वारा भगाए गए
फुटपाथियों से
ये यादों के टुकड़े...
हालाते की तरह
बदल जाते हैं
अलमारी में बिछे अख़बार
और नए बिछे अख़बारें के नीचे
सरका दिए जाते हैं फिर से
पूर्वाग्रहों से ये कागज़्ा के टुकड़े...
क्यों नहीं फेंक पाते इन्हें
यह जानते हुए कि बरसों से
काम नहीं आये ये सब
हाँ इतना तो काम आये हैं
कि भरा-पूरा लगता है इनसे
जिंदगी का घर।