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जिंदगी तल्ख़तर हो गई / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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जिंदगी तल्ख़तर हो गई,
जेठ की दोपहर हो गई।
ख़्वाहिशें तो मुसलसल बढ़ीं,
पर खुशी मुख़्तसर हो गई।
इक जुलाहे के दर से लिपट,
मुफ़लिसी मोतबर हो गई।
हक-ब-जानिब थी जो रहगुज़र,
किस कदर पुरख़तर हो गई।
कोई चारा न जब रह गया,
पीर ही चारागर हो गई।
फिर चिरागों ने की साजिशे,
फिर हवा तल्खतर हो गई।
जिंदगी खूबसूरत लगी,
जब पसीने से तर हो गई।