जिंदगी हारी नहीं है / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
खेल था क्या इस धरा का
जब कंपा कर रख दिया
प्रांतर विहंसता
कई मीलों तक
ध्वंस की बरसात होती रही।
हजारों घर उजड़ कर रह गए
मृत्यु का इतना बड़ा तांडव
देखने को बच नहीं पाया कोई
खंडहर रोते रह गये।
सूनसान धरती पर
लिख नहीं पाया कोई
बेमौत मरने की कहानी।
वीभत्स रस में डूब कर
अक्षर अधूरे रह गये थे।
पर्वतों से बहे लावा ने
जला डाली पुरानी
सभ्यताएँ फूलती फलती।
झुलसती राख ने
दफना दिए छोटे बड़े।
सुनामी आ गई सब कुछ
बहाने की कसम खा कर।
गर्म होती धरा
पिघलती बर्फ की संचित धरोहर।
उफनती नदी टूटते तट बंध्य
बहती मौत का तांडव।
हवाएँ चक्रवाती लाल आंधी
से ढका सूरज।
नियति के यह भयावह दृश्य
मुंह बाय खड़े हैं सामने अपने
प्रलय को दे रहे दस्तक।
जिंदगी अब तक मगर हारी नहीं है
जवानी ने चुनौती मान ली है
जिसने बनाया है खिलौना
वही इसको तोड़ डालेगा
नासमझ इतना रचियता
हो नहीं सकता॥