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जिनगी के सफर में / अरुण हरलीवाल

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हम तो
भीड़ में अकेला हली।
पता नइँ,
कउन टीसन पर
तूँ हमर बोगी में
आके चुपचाप
बइठ गेल ऽ हमरे पास।
देखली हम
चुंबक-सन अँखियन में तोहर
नेहिल नेउता...
मिस्री-सन बानी तोहर,
बिजुरी-सन मुस्कान
अउ बरखा-सन हँसी से
बन्ह गेल
हमर परान।
कि छूके हमर देह
तन-मन में नेह
भर देलक हाथ तोहर।
पाके सरग-सन साथ तोहर
ई सफर,
ई गाड़ी, ई बोगी,
गाड़ी के झुकझुक अउ अइँजन के सीटी
ई बस्ता, ई रस्ता,
बामे-दहिने
सब खेत-खरिहान,
नदी-पहाड़ अउ बन-बगान... धरती-अस्मान
सब कुछ केतना बदलल-बदलल
लगे लगल,
दिल में सपना पर सपना
जगे लगल।
मगर, डरेत हे दिमाग
ई सोचके कि अइलऽ हल जइसे,
अचक्के कखनियो
चल नइऽ जा एकबइक!

सुनऽ, हमराही!
गाड़ी बदल लिहऽ तो बदल लिहऽ,
मगर मंजिल तूँ बदलिहऽ नइऽ;
बदलिहऽ नइँ चाल अउ दिसा।
हो सके, तो इहे रुखे
चलिहऽ हमेसे।