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जिनगी रोॅ दीया / बिंदु कुमारी
Kavita Kosh से
ऊ! एक दीया छेकै
जे जरतेॅ रहै छै
बिना तेल के भी।
ऊ! एक बंधन छेकै
जे बान्हलोॅ रहै छै
बिना गाँठो के भी।
ऊ! एक समुन्दर छेकै
जे फैलतेॅ रहै छै
बिना बहस के भी।
ऊ! एक समुन्दर छेकै
जे उफनलतेॅ रहै छै
बिना तूफान के भी।
ऊ! एक मोती छेकै
जे गुंथलोॅ जाय छै
बिना चाँदी के भी।
ऊ! एक विश्वास छेकै
जे पनपते रहै छै
बिना सोच के भी।
जानै छोॅ ऊ की छेकै?
ऊ! छेकै गुलाब के फूल
जे आपनोॅ अतीत के कहानी कहै छै।
नुकैलोॅ छै
हमरोॅ किताबोॅ रोॅ बीचोॅ मेॅ।
मन रोॅ कोना मेॅ
गोकुल रोॅ गल्ली मेॅ
समय पाबी केॅ एकबारगी
खट-खटाय केॅ हाँसी पड़तै
छाती सेॅ सट्टी जैतै
आरो समुच्चा वातावरण
मिठ्ठोॅ खुशबू सेॅ गमकी उठतै।