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जिन्दगी की खनक / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
मौत की
हजार चीखों से
ज्यादा आवाज होती है
जिन्दगी की खनक में
जैसे दूर तक फैले
रेगिस्तान की
तमाम मनहूसियत को
शर्मसार कर देती है
समय की तेजी से बहती
एक नदी...
अलग अलग कमरों
और उनमें रहते
तमाम चेहरों को समेटकर
घर की शक्ल देती है
एक औरत...
सर्दियों भर की ठिठुरन
और पतझड़ की मायूसी को
पल में खारिज करती है
बसन्त की
पहली कली...
करोड़ांे तारों में छिपते
बहरूपिये चाँद को
ढूँढकर ले आती है
पूनम की एक रात...
ऐसे
बिल्कुल ऐसे ही
बासी दिमागों
और नकली कोशिशों के बीच
लगातार मर रहे
जीने के आसारों को
जिला देती है
एक असली जिन्दगी
अपनी ताजा साँसों की
भरपूर हवाओं से छू कर।