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जिस रोज़ क़ज़ा आएगी / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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1.
किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल शब
बेतलब पहले पहल मर्हमते-बोसा-ए-लब
जिससे खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर
और कहीं दूर से अनजान गुलाबों की बहार
यक-ब-यक सीना-ए-महताब तड़पाने लगे

2.
शायद इस तरह कि जिस और कभी आख़िरे-शब
नीम वा कलियों से सर सब्ज़ सहर
यक-ब-यक हुजरे महबूब में लहराने लगे
और ख़ामोश दरीचों से ब-हंगामे-रहील
झनझनाते हुए तारों की सदा आने लगे

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर तहे नोके-सनाँ
कोई रगे वाहमे दर्द से चिल्लाने लगे
और क़ज़ाक़े-सनाँ-दस्त का धुँदला साया
अज़ कराँ ताबा कराँ दहर पे मँडलाने लगे
जिस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
ख़्वाह क़ातिल की तरह आए कि महबूब सिफ़त
दिल से बस होगी यही हर्फ़े विदा की सूरत
लिल्लाहिल हम्द बा-अँजामे दिले दिल-ज़द्गाँ
क़लमा-ए-शुक्र बनामे लबे शीरीं-दहना