भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जी लेंगे थोड़ा और कि इक आह बाकी है / मोहिनी सिंह
Kavita Kosh से
जी लेंगे थोड़ा और कि इक आह बाकी हैं
जो मुझको फना कर दे,उठनी वो चाह बाकी है।
किसे परवाह है मंजिल मेरी छूटी कहाँ पीछे
हम तो चलते हैं कि अभी और राह बाकी है।
तू फांक मस्जिदों की धूल,मैं दिलों में झाँक लेता हूँ
कोई तो होगा दर जहाँ वजूद-ए-अल्लाह बाकी है।
इतनी जल्दी नहीं मिलेगी सजा-ए-मौत काफ़िर को
काफ़िर की सजा में और इक गुनाह बाकी है।
गुज़रा वक़्त न लौटेगा,ये खूब जानते हैं हम
इन आँखों में इंतज़ार बस ख्वामख्वाह बाकी है।