जीव शक्ति / वरवर राव
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वह महीना फिर आया
आषाढ़ गया
अगस्त भी चला गया
जहाँ आँसू गिरे थे
वहाँ दो ख़ून की बूंदों के निशान भी बने हैं ।
आँखें जो फिर कभी नहीं खुलेंगी ।
जिनमें सदैव बसी हैं बहुत-सी स्मृतियाँ
कोई आवाज़
कोई पुकार कहीं पर चुपचाप ठहर जाती है ।
कहीं कोमलता से टकराती है
हृदय को चीर कर जाने वली गोली
फेफड़ों के चीरने वाले यादों का खंज़र
दिल के घाव पर वक़्त की मरहम-पट्टी ।
हर दिन आँसू-भरा नहीं होता
किन्तु आनन्द के छोर पर
कभी डुबकी लगाए बग़ैर
भला कैसे पता चल सकता है
वेदना की गहराई का ?
वे दिन आएंगे
अश्क बनेंगे इन्द्रधनुष
रक्त होगा प्रकाशित
स्मृतियाँ गाएंगी इतिहास
कष्ट बनेंगे जनगाथा ।
सभी दिन एक जैसे होते हैं
तिथियाँ ही सच्चाई के डंक मारती हैं
उन मधुमक्खियो की तरह
शहद के छत्ते को हिलाने पर
उससे निकलकर उड़ती हैं जो ।
अनुभव अर्जित सच्चाईयाँ ही
शहद की भाँति
प्रवाहित होती हैं कल्पनाओं में ।
कोई प्रवाह
नहीं धो सका है ख़त-चिन्हों को
इतनी बाढ़ में भी नहीं धुल पाए हैं
मेरे अश्रु-बिन्दु...
बाढ़ की गहराई में ठहरी
मिट्टी की तहों में दबी
जीव-शक्ति विद्यमान है पूर्ववत ही
मृत्यु करती है जिसका हरण ।
उधर मौत पर पर्दा गिरता है
इधर जीवन का दृश्य
वर्तमान के आँसुओं के रास्ते
मंज़िल की तरफ़ पुल बनाता है ।