जीवन-दान / विमल राजस्थानी
‘श्यामपुरी’ की जनता आतप से आकुल सोयी थी
लूहों का भय त्याग, घरों में सपनों में खोयी थी
पंछी बैठे थे नीड़ों में, डंगर ऊँच रहे थे
और कई प्यासे बछड़े मा के थन चूँघ<ref>राजस्थानी भाषा का यह शब्द चूसने का अर्थ रखता है</ref> रहे थे
सूख चुकी थीं कलियाँ कल जो फूली और फली थीं
तरु-तृण-लता-गुल्म की हालत थी अति दर्दीली थी
शिथिल हो चुकी थी मधु-मलयानिल की सुखद थपकियाँ
डगर-डगर में सन्नाटा था, नीरव गली-गली थी
डगमग-डगमग पाँव गाँव में आ पहुँचा ‘वनमाली’
परिवर्तित थी हुई कालिमा में शशि-मुख की लाली
बिखर गयी थीं लटें, अधमरा बन वह हाँफ रहा था
पीपल के पत्ते की नाईं थर-थर काँप रहा था
किसी तरह गिरता-पड़ता, तरु-तले एक वह आया
पर अभाग्य से सूख चुका था तरु, न मिल सकी छाया
चला, किन्तु गिर पड़ा वहीं पर सिहर गाछ के नीचे
शिथिल अंग, मूर्छित हो उसने नयन-युगल निज मींचे
ग्राम्या एक इन्हीं घड़ियों में पनघट ऊपर आयी
झाँक रही थी नयन-झरोखों से चंचल तरुणाई
गूँज उठा मधु नूपुर-ध्वनि से पुर का कोना-कोना
चमक उठा रवि की किरणों से सुन्दर गात सलोना
धर पनघट पर घट, छिटपुट लट चटपट सिमट बटोरी
नीर खींचने लगी कुँए से बाँध कलश में डोरी
भर, धर सिर पर मधुर-मदिर घट, घर को चली किशोरी
सन्ध्यारुण-सी लगी दमकने आकृति गोरी-गोरी
जिधर धूल में उसके आतुर चरण-चिह्न पड़ते थे
उधर मुग्धकर, मनहर, सुन्दर बूटे-से कढ़ते थे
चली बचाती तप्त-रश्मियों से निज कुसुम-कलेवर
चू-चू घट से सीकर-कन तन पर गिर-गिर पड़ते थे
पगडंडी के एक मोड़ पर दीख पड़ा ‘वनमाली’
चकित हो गयी ज्योंही उसने आँखें उस पर डालीं
चित्र-लिखित-सी, ठिठक वहीं, वह खड़ी रह गयी भोली
--”ये तो शायद वे ही हैं उफ!“ मन ही मन वह बोली
सिहर उठी ग्राम्या की आकुल, विह्वल, कोमल-काया
देख उसे जानें क्यों उसका लघु उर-सर भर आया
धर कर गगरी वहीं, सुन्दरी ने झटपट आतुर हो-
‘पुर’ के उस आराध्य देव को गोदी-मध्य सुलाया
चंचल अंचल का वितान तन शशि-मुख पर की छाया
अंजलियाँ भर-भर शीतल जल ले-लेकर उसे पिलाया
पतली, मसृण उँगलियों से कल-केश-राशि सहलाकर
किसी भाँति उस मृतक सरीखे ‘वन’ को आज जिलाया