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जीवन-पतंग / तरुण
Kavita Kosh से
चला था न मैं तो-
रहस्यमय दिशा-वधुओं का घूँघट खोलने,
हीरे-मोतियों वाले आकाश पर चाँदी के बर्फ-सा चिपकने,
धुँधलाते चाँद की कलई करने,
मन्द पड़ते सूरज की लौ को सलाई से उकसाने,
निरा पतंग मैं!
आह, पेंच के खेल में पड़कर
कटने का सुख भी तो न मिला!
सड़क के किनारे, बिजली के तारों में ही
उलझ कर रह गया-
अपनी ही तीलियों से अपने नाचीज, झीने रंगीन कागज की
पसलियों को भेदता-सा!
आँखों में सुनील ऊँचाइयों के ध्वस्त सपने लिए
ठगा-सा रह गया!
उलझी है पतंग अब तो सड़क के तारों में-
जिनमें से पास हो रहा है करेन्ट!
और हवा में झूल रहा है नीचे धूल-माटी में लटकता
एक अदना धागा-
मेरे अस्तित्व का अवशेष!
1969